Sunday 3 July 2016

सच्चा प्यार

सच्चा प्यार !
क्या वह नॉर्मल है?
क्या  वह उपयोगी है?
क्या इसमें पर्याप्त गंभीरता है?

भला दुनिया के लिए वे दो व्यक्ति किस काम के
जो अपनी ही दुनिया में खोये हुए हों?
बिना किसी ख़ास वजह के

एक ही ज़मीन पर आ खड़े हुए हैं ये दोनों
किसी अद्रश्य हाथ ने लाखों करोड़ों की भीड़ से उठाकर
अगर इन्हें पास-पास रख दिया
तो यह महज़ एक अँधा इत्तिफाक था
लेकिन इन्हें भरोसा है कि इनके लिए यही नियत था
कोई पूछे कि किस पुन्य के फलस्वरूप?
नहीं, नहीं, न कोई पुन्य था, न कोई फल है

अगर प्यार एक रौशनी है
तो इन्हें ही क्यों मिली?
दूसरों को क्यों नहीं?
चाहे कुदरत की ही सही
क्या यह नाइंसाफी नहीं?
बिलकुल है.

क्या ये सभ्यता के आदर्शों को तहस-नहस नहीं कर देंगे?
अजी, कर ही रहे हैं.

देखो, किस तरह खुश हैं दोनों
कम से कम छिपा ही लें अपनी ख़ुशी को
हो सके तो थोड़ी सी उदासी ओढ़ लें
अपने दोस्तो की खातिर ही सही, जरा उनकी बातें तो सुनो
हमारे लिए अपमान और उपहास के सिवा क्या है!
और उनकी भाषा?
कितनी संदिग्ध स्पष्टता है उसमें!
जुर उनके उत्सव उनकी रस्में
सुबह से शाम तक फैली हुई उनकी दिनचर्या!
सब कुछ एक साजिश है पूरी मानवता के खिलाफ।

हम सोच भी नहीं सकते कि क्या  से क्या हो जाए
अगर सारी दुनिया इन्हीं की राह पर चल पड़े!
तब धर्म और कविता का क्या होगा!
क्या याद रहेगा, क्या छूट जाएगा
भला कौन अपनी मर्यादाओं में रहना चाहेगा!

सच्चा प्यार?
मैं पूछती हूँ क्या यह सचमुच इतना ज़रूरी है?
व्यावहारिकता और समझदारी तो इसी में है
कि ऐसे सवालों पर चुप्पी लगा ली जाए
जैसे ऊंचे तबकों के पाप-कर्मों पर खामोश रह जाते है हम.
प्यार के बिना भी स्वस्थ बच्चे पैदा हो सकते हैं.
और फिर यह है भी इतना दुर्लभ
कि इसके भरोसे बैठे रहे
तो यह दुनिया लाखों बरसों में भी आबाद न हो सके।

जिन्हें कभी सच्चा प्यार नहीं मिला
उन्हें कहने दो कि
दुनिया में ऐसी कोई चीज़ होती ही नहीं।
इस विश्वास के सहारे
कितना आसान हो जाएगा
उनका जीना और मरना।

By - कमल कुमार रेबारी

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