Thursday 28 July 2016

सोशल मीडिया से लेकर राजनीति में गालियों का जारी है खेल!


इन दिनों सोशल मीडिया से लेकर राजनैतिक चरागाहों तक एक-दूसरे को अश्लील गालियां दी जा रही हैं. जबकि केंद्र सरकार का ‘लिंग-जांच एवं बालिका भ्रूण-हत्या विरोधी अभियान’ नारा देता है कि ’महिलाओं के नाम पर गाली देकर अपने संस्कार एवं सोच का सामाजिक प्रदर्शन न करें. किसी लिंग विशेष को बातचीत में गाली के रूप में लाना लैंगिक हिंसा है.’

बावजूद इसके सोशल मीडिया पर ऐसे बहुत-से अकाउंट हैं जो अहर्निश गाली-गलौज़ में मुब्तिला रहते हैं. गौर करने की बात यह भी है कि भारतीय समाज में किसी भी माध्यम से गाली चाहे इस पार का व्यक्ति दे या उस पार का, लिंग विशेष के नाम पर गाली देता है.

कोई तर्क दे सकता है कि ‘सभ्य’ लोग गाली नहीं देते! पर यह हकीक़त नहीं है. दुनिया में शायद ही कोई ऐसा हो जो गाली न देता हो या जिसने कभी गाली न दी हो. आदमी-औरत, बच्चे-बूढ़े, पत्रकार-प्रोफेसर, साधु-संत, नेता-अभिनेता, अमीर-गरीब, मूर्ख-विद्वान, हिंदू-मुसलमान, सिख-ईसाई यदा-कदा सभी गालियां बकते हैं. इस मामले में सब भाई-भाई हैं और उनकी तीक्ष्णतम गालियों में लिंग विशेष के लिए अपशब्दों की भरमार मिलती है.
कहा जाता है कि गालियां अक्सर कमज़ोर लोगों के मुखारविंद से झरा करती हैं. लेकिन दबंग भाजपा नेता (अब निष्कासित) दयाशंकर सिंह ने बहन मायावती के लिए अपशब्द कह कर गाली-स्पर्द्धा का फीता काटा तो इसके जवाब में बसपा वालों ने लखनऊ के हज़रतगंज में लाउड स्पीकर लगाकर दयाशंकर सिंह की बहन-बेटी को पेश करने के चौके-छक्के जड़े. यहां गालियां देने वाले दोनों पक्ष क्रिस गेल थे. तुलसी बाबा ने दो महाबलियों लक्ष्मण-परशुराम के बीच हुए संवाद के प्रसंग में भगवान परशुराम जी को समझाइश भी दी थी– ‘वीर व्रती तुम धीर अछोभा/ गारी देत न पावहु सोभा.’ लेकिन अब ज़माना बदल गया है. लोग महिलाओं से संबंधित गालियां देकर अपनी शोभा और सामाजिक क़द बढ़ाते हैं तथा राजनीति में प्रमोशन भी पाते हैं! हद तो यह है कि स्त्रियां भी स्त्रियों को अथवा पुरुषों को जब गालियां बकती हैं तो अपनी भावनात्मक-वैचारिक और संवेदनात्मक ऊर्जा में उत्पन्न हुए अनावश्यक विकारों के निस्तारण के लिए स्वयं को ही अपमानित करते हुए पुरुषों के गाली-शास्त्र का ही प्रयोग करती हैं!

 

अनुमान है कि गालियों का प्रादुर्भाव भाषा के विकास के साथ ही हुआ होगा. तीक्ष्ण, अप्रिय और अपमानित करने वाला हर शब्द गाली होता है शब्द के प्रहार से जब कोई व्यक्ति क्रोधित होकर विवेकशून्य और अनियंत्रित हो उठे तो वह शब्द-शक्ति गाली कहलाती है. शब्द का वाण शस्त्र से अधिक संहारक होता है. द्रोपदी का दुर्योधन को यह कहना कि ‘अंधों के अंधे ही होते हैं’ महाभारत युद्ध का बीज बन गया था. अर्थात शब्दों से अपमानित करना, उपहास करना अथवा कोसना भी गाली की तरह ही लिया जाता है. नदी किनारे मैथुनरत क्रौंच पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी को जब बहेलिये ने मार गिराया तो मादा क्रौंच पक्षी का विलाप सुन कर महर्षि बाल्मीकि ने बहेलिये को कोसा- मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः । यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम् ।। (ऐ निषाद! तुम अनंत वर्षों तक प्रतिष्ठा प्राप्त न कर सको, क्योंकि तुमने क्रौंच पक्षियों के जोड़े में से कामभावना से ग्रस्त एक का वध कर डाला है. जाहिर है बाल्मीकि कमंडलधारी थे और बहेलिया तीर-कमान धारी. उनका वश चलता तो वह कोसने के बजाए बहेलिए का टेंटुआ ही दबा देते!

 

फिर ‘रामचरितमानस’ का वह प्रसंग जब भरत अपनी ही माता कैकयी को अपशब्द कहते हैं- ‘बर मांगत मन भै नहिं पीरा/ जरि न जीह मुंह परेउ न कीरा.’ ‘महाभारत’ में तो श्री कृष्ण ने शिशुपाल को गालियां देने की एक लिमिट दे दी थी. यानी शिशुपाल को पूरी छूट थी कि वह १०० गालियां दे सकता था, जैसे ही उसने यह लिमिट क्रॉस की, श्री कृष्ण ने उसका सिर सुदर्शन चक्र से काट दिया. जाहिर है कि गालियां देना कोई आज का फिनॉमिना नहीं हैं. लेकिन स्त्रियों की अवमानना से संबंधित गालियों का प्रयोग आधुनिक दौर में चरम पर है. हिंदी साहित्य में पात्रों के संवादों की स्वाभाविकता बरकरार रखने के नाम पर गालियों का प्रयोग होता आया है. हमारे देश का पुलिस महकमा तो गालियों के बिना श्रीहीन ही हो जाएगा!

 

यों तो कबीलाई समाज के ज़माने से ऐसा होता आया है. अपने ख़ेमे की महिलाओं के साथ हुए दुर्व्यवहार का बदला विरोधी ख़ेमे की महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करके लिया जाता था. आज भी युद्धों और साम्प्रदायिक दंगों का शिकार सबसे ज़्यादा स्त्रियां ही बनती हैं. रामायण से लेकर महाभारत तक में ऐसे तमाम उदाहरण मिलते हैं. रावण ने बहन सूपर्णखा के नाक-कान काटे जाने के अपमान का बदला लेने के लिये सीता का हरण किया. उसी संस्कृति पर चलते हुए बसपा ने बहन मायावती के अपमान का बदला लेने के लिए पूर्व भाजपाई दयाशंकर सिंह की बहन-बेटियों की इज्जत उछाल दी. पौरुषता तथा अभिशाप बन चुकी पितृ-सत्तात्मकता को सुदृढ़ करने की बौखलाहट दोनों पक्षों की गालियों में साफ झलकती है. वे जानते हैं कि शील, सम्मान, मर्यादा, शुचिता और सच्चरित्रता महिलाओं का अमूल्य धन है और उन्हें दबाने व नियंत्रण में करने के लिए उनके इसी धन पर चोट करना निर्णायक सिद्ध होगा ताकि मातृ-सत्तात्मक दौर पुनर्स्थापित न हो सके.

 

यह भी देखा जाए कि इन दिनों सावन का महीना चल रहा है और स्त्री-केंद्रित गाली-पुराण का देशव्यापी पवन ‘सोर’ अथवा ‘शोर’ कर रहा है. मान्यता है कि जो कुंवारी कन्याएं इस महीने के सभी सोमवार शिव जी की विधिवत पूजा-अर्चना करती हैं उन्हें शिव जैसा वर प्राप्त होता है. सच भी है, शिव जी को गांजा-धतूरा प्रेमी देव माना जाता है, और आजकल दारू-गुटका प्रेमी वर थोक के भाव मिलते हैं. वैसे पूरे बरस भर में कोई भी ऐसा माह नहीं है जिसमें महिलाओं के लिए कोई पर्व अथवा विशेष दिन न हो. हमारे सारे पर्व नारी की महिमा का गौरवगान करते हैं, नारी का महत्व समझाते हैं, नारी को ही दिव्यमयी सर्वशक्तिशाली बताते हैं. भारत में नारी आरंभ से ही दुर्गा, लक्ष्मी, काली, चंडी व सरस्वती के रूप में पूज्य रही है. हमारे देश में तो लोग यह श्लोक रट लेते हैं कि यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता: लेकिन विरोधाभास देखिए कि उनकी ज़बान बात-बात पर महिलाओं को केंद्र में रख कर बनी गालियां बरसाकर देवताओं को पवित्र भारतभूमि पर रमने ही नहीं देती हैं!

 

इस मामले में अखिलभारतीय समाजवाद व्याप्त है. महिलाओं को गरियाने से लेकर अभद्र और आपत्तिजनक टिप्प्णियां करने के मामले में टॉप टू बॉटम लोग पार्टी पोलिटिक्स और वर्ग तथा वर्ण से ऊपर उठ जाते हैं. भले ही संविधान के अनुच्छेद १५ में साफ कहा गया है कि राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा लेकिन लोग घर-बाहर अक्सर स्त्रियों को गरियाते मिल जाएंगे. एक तरफ तो देश में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ नारा चलता है, दूसरी तरफ बहन-बेटी से संबंधित गालियों का इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है. अपनी राय व्यक्त करने पर कविता कृष्णन, अरुंधती राय, सागरिका घोष, बरखा दत्त, राणा अयूब जैसी विदुषियों को गैंगरेप की खुलेआम धमकी दी जाती है! केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी, कांग्रेस प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी, भाजपा नेत्री अंगूरलता डेका को भी नहीं बख़्शा जाता! विराट कोहली के असफल होने पर अनुष्का शर्मा की फोटो लगाकर अश्लील व घटिया चुटकुले शेयर किए जाते हैं. यानी यौन-कुंठितों के हमले का प्रमुख लक्ष्य स्त्रियां ही हैं, चाहे वे कितनी भी कामयाब क्यों न हो जाएं!

 

इतिहासकार सूजैन ब्राउनमिलर का कहना है कि प्रागैतिहासिक काल में ही जब मर्दों को पता चल गया कि वे बलात्कार कर सकते हैं तो वे इसके साथ आगे बढ़े. बहुत-बहुत बाद में ख़ास हालात के चलते जब वे बलात्कार को अपराध मानने के लिए तैयार हुए तो कृत्य की कमी के चलते कुंठा में गालियों और अपमानसूचक शब्दों की शुरुआत हुई. गाली देकर हम किसी का अपमान करते हैं, गुस्सा/खीझ उतारते हैं या मज़ाक उड़ाते हैं. आमतौर से ये सारे गुण, जैसे सम्मान, गुस्सा या मज़ाक मर्दों के ‘अधिकार’ माने जाते हैं. ऐसे में गाली अक्सर मर्दों की चीज़ बन जाती है. इसीलिए ज्यादातर गालियां मर्दों के मान-अपमान एवं नफ़ा-नुकसान को ध्यान में रख कर बनी हैं; भले ही ऐसा करने में औरतों के शरीर या जानवरों की उपमा का घृणित इस्तेमाल होता हो. किसी समाज में प्रचलित गालियां यह बताती हैं कि किसी का बुरे से बुरा अपमान किस भांति हो सकता है तथा वहां सामाजिक नीचता की सीमा क्या है. इस प्रक्रिया में छुपी हुई लैंगिक हिंसा यह दिखाती है कि हम किसी को कितना जलील कर सकते हैं और औरत के शरीर को किस हद तक गालियों के केंद्र में रख सकते हैं.

 

यह जानना दिलचस्प है कि अलग-अलग संस्कृतियों में बुरी गालियों का मापदंड अलग-अलग है. किन्हीं समाजों में सगे-सम्बन्धियों के साथ यौन-संपर्क को सबसे बुरी गाली (मां, बहन से जुड़ी गालियां) माना जाता है (तुर्की, ईरान से लेकर मध्य एशिया और भारत तक), तो किन्हीं समाजों में शरीर के ख़ास अंगों/उत्पादों से तुलना (अंगविशेष या मल आदि के नाम पर दी जाने वाली गालियां) को बहुत बुरा माना जाता है (समूचे यूरोप में). कुछ समाजों में जानवरों या कीड़े-मकोड़ों से तुलना सबसे बुरी मानी जाती है (चीन, मेडागास्कर, थाइलैंड आदि देशों में), तो कुछ समाजों में नस्ल और जाति से जुड़ी गालियां सुनने वाले के शरीर में आग लगा देती हैं (यूएसए में). हां, लिंग से जुड़ी गालियां अमूमन हर समाज में पाई जाती हैं. एक आदर्श समाज में किसी भी प्रकार की गाली के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए लेकिन लोग एक-दूसरे को जलील करने के तरीके खोज ही लेते हैं. ऐसे में क्यों न मां-बहन की गालियां निकाल कर सामने वाले को गहरी चोट पहुंचाने और अपमानित करने की जगह कुछ आधुनिक गालियां ईजाद की जाएं? जैसे कि तेरे भ्रष्टाचार का प्लास्टिक डालूं! तेरी सांप्रदायिकता का धर्मनिरपेक्षता करूं, इसके इलेक्शन का कलेक्शन मारूं, इसके ई-कचरे का बैंड बजाऊं…आदि!

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