Thursday 28 July 2016

सोशल मीडिया से लेकर राजनीति में गालियों का जारी है खेल!


इन दिनों सोशल मीडिया से लेकर राजनैतिक चरागाहों तक एक-दूसरे को अश्लील गालियां दी जा रही हैं. जबकि केंद्र सरकार का ‘लिंग-जांच एवं बालिका भ्रूण-हत्या विरोधी अभियान’ नारा देता है कि ’महिलाओं के नाम पर गाली देकर अपने संस्कार एवं सोच का सामाजिक प्रदर्शन न करें. किसी लिंग विशेष को बातचीत में गाली के रूप में लाना लैंगिक हिंसा है.’

बावजूद इसके सोशल मीडिया पर ऐसे बहुत-से अकाउंट हैं जो अहर्निश गाली-गलौज़ में मुब्तिला रहते हैं. गौर करने की बात यह भी है कि भारतीय समाज में किसी भी माध्यम से गाली चाहे इस पार का व्यक्ति दे या उस पार का, लिंग विशेष के नाम पर गाली देता है.

कोई तर्क दे सकता है कि ‘सभ्य’ लोग गाली नहीं देते! पर यह हकीक़त नहीं है. दुनिया में शायद ही कोई ऐसा हो जो गाली न देता हो या जिसने कभी गाली न दी हो. आदमी-औरत, बच्चे-बूढ़े, पत्रकार-प्रोफेसर, साधु-संत, नेता-अभिनेता, अमीर-गरीब, मूर्ख-विद्वान, हिंदू-मुसलमान, सिख-ईसाई यदा-कदा सभी गालियां बकते हैं. इस मामले में सब भाई-भाई हैं और उनकी तीक्ष्णतम गालियों में लिंग विशेष के लिए अपशब्दों की भरमार मिलती है.
कहा जाता है कि गालियां अक्सर कमज़ोर लोगों के मुखारविंद से झरा करती हैं. लेकिन दबंग भाजपा नेता (अब निष्कासित) दयाशंकर सिंह ने बहन मायावती के लिए अपशब्द कह कर गाली-स्पर्द्धा का फीता काटा तो इसके जवाब में बसपा वालों ने लखनऊ के हज़रतगंज में लाउड स्पीकर लगाकर दयाशंकर सिंह की बहन-बेटी को पेश करने के चौके-छक्के जड़े. यहां गालियां देने वाले दोनों पक्ष क्रिस गेल थे. तुलसी बाबा ने दो महाबलियों लक्ष्मण-परशुराम के बीच हुए संवाद के प्रसंग में भगवान परशुराम जी को समझाइश भी दी थी– ‘वीर व्रती तुम धीर अछोभा/ गारी देत न पावहु सोभा.’ लेकिन अब ज़माना बदल गया है. लोग महिलाओं से संबंधित गालियां देकर अपनी शोभा और सामाजिक क़द बढ़ाते हैं तथा राजनीति में प्रमोशन भी पाते हैं! हद तो यह है कि स्त्रियां भी स्त्रियों को अथवा पुरुषों को जब गालियां बकती हैं तो अपनी भावनात्मक-वैचारिक और संवेदनात्मक ऊर्जा में उत्पन्न हुए अनावश्यक विकारों के निस्तारण के लिए स्वयं को ही अपमानित करते हुए पुरुषों के गाली-शास्त्र का ही प्रयोग करती हैं!

 

अनुमान है कि गालियों का प्रादुर्भाव भाषा के विकास के साथ ही हुआ होगा. तीक्ष्ण, अप्रिय और अपमानित करने वाला हर शब्द गाली होता है शब्द के प्रहार से जब कोई व्यक्ति क्रोधित होकर विवेकशून्य और अनियंत्रित हो उठे तो वह शब्द-शक्ति गाली कहलाती है. शब्द का वाण शस्त्र से अधिक संहारक होता है. द्रोपदी का दुर्योधन को यह कहना कि ‘अंधों के अंधे ही होते हैं’ महाभारत युद्ध का बीज बन गया था. अर्थात शब्दों से अपमानित करना, उपहास करना अथवा कोसना भी गाली की तरह ही लिया जाता है. नदी किनारे मैथुनरत क्रौंच पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी को जब बहेलिये ने मार गिराया तो मादा क्रौंच पक्षी का विलाप सुन कर महर्षि बाल्मीकि ने बहेलिये को कोसा- मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः । यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम् ।। (ऐ निषाद! तुम अनंत वर्षों तक प्रतिष्ठा प्राप्त न कर सको, क्योंकि तुमने क्रौंच पक्षियों के जोड़े में से कामभावना से ग्रस्त एक का वध कर डाला है. जाहिर है बाल्मीकि कमंडलधारी थे और बहेलिया तीर-कमान धारी. उनका वश चलता तो वह कोसने के बजाए बहेलिए का टेंटुआ ही दबा देते!

 

फिर ‘रामचरितमानस’ का वह प्रसंग जब भरत अपनी ही माता कैकयी को अपशब्द कहते हैं- ‘बर मांगत मन भै नहिं पीरा/ जरि न जीह मुंह परेउ न कीरा.’ ‘महाभारत’ में तो श्री कृष्ण ने शिशुपाल को गालियां देने की एक लिमिट दे दी थी. यानी शिशुपाल को पूरी छूट थी कि वह १०० गालियां दे सकता था, जैसे ही उसने यह लिमिट क्रॉस की, श्री कृष्ण ने उसका सिर सुदर्शन चक्र से काट दिया. जाहिर है कि गालियां देना कोई आज का फिनॉमिना नहीं हैं. लेकिन स्त्रियों की अवमानना से संबंधित गालियों का प्रयोग आधुनिक दौर में चरम पर है. हिंदी साहित्य में पात्रों के संवादों की स्वाभाविकता बरकरार रखने के नाम पर गालियों का प्रयोग होता आया है. हमारे देश का पुलिस महकमा तो गालियों के बिना श्रीहीन ही हो जाएगा!

 

यों तो कबीलाई समाज के ज़माने से ऐसा होता आया है. अपने ख़ेमे की महिलाओं के साथ हुए दुर्व्यवहार का बदला विरोधी ख़ेमे की महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करके लिया जाता था. आज भी युद्धों और साम्प्रदायिक दंगों का शिकार सबसे ज़्यादा स्त्रियां ही बनती हैं. रामायण से लेकर महाभारत तक में ऐसे तमाम उदाहरण मिलते हैं. रावण ने बहन सूपर्णखा के नाक-कान काटे जाने के अपमान का बदला लेने के लिये सीता का हरण किया. उसी संस्कृति पर चलते हुए बसपा ने बहन मायावती के अपमान का बदला लेने के लिए पूर्व भाजपाई दयाशंकर सिंह की बहन-बेटियों की इज्जत उछाल दी. पौरुषता तथा अभिशाप बन चुकी पितृ-सत्तात्मकता को सुदृढ़ करने की बौखलाहट दोनों पक्षों की गालियों में साफ झलकती है. वे जानते हैं कि शील, सम्मान, मर्यादा, शुचिता और सच्चरित्रता महिलाओं का अमूल्य धन है और उन्हें दबाने व नियंत्रण में करने के लिए उनके इसी धन पर चोट करना निर्णायक सिद्ध होगा ताकि मातृ-सत्तात्मक दौर पुनर्स्थापित न हो सके.

 

यह भी देखा जाए कि इन दिनों सावन का महीना चल रहा है और स्त्री-केंद्रित गाली-पुराण का देशव्यापी पवन ‘सोर’ अथवा ‘शोर’ कर रहा है. मान्यता है कि जो कुंवारी कन्याएं इस महीने के सभी सोमवार शिव जी की विधिवत पूजा-अर्चना करती हैं उन्हें शिव जैसा वर प्राप्त होता है. सच भी है, शिव जी को गांजा-धतूरा प्रेमी देव माना जाता है, और आजकल दारू-गुटका प्रेमी वर थोक के भाव मिलते हैं. वैसे पूरे बरस भर में कोई भी ऐसा माह नहीं है जिसमें महिलाओं के लिए कोई पर्व अथवा विशेष दिन न हो. हमारे सारे पर्व नारी की महिमा का गौरवगान करते हैं, नारी का महत्व समझाते हैं, नारी को ही दिव्यमयी सर्वशक्तिशाली बताते हैं. भारत में नारी आरंभ से ही दुर्गा, लक्ष्मी, काली, चंडी व सरस्वती के रूप में पूज्य रही है. हमारे देश में तो लोग यह श्लोक रट लेते हैं कि यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता: लेकिन विरोधाभास देखिए कि उनकी ज़बान बात-बात पर महिलाओं को केंद्र में रख कर बनी गालियां बरसाकर देवताओं को पवित्र भारतभूमि पर रमने ही नहीं देती हैं!

 

इस मामले में अखिलभारतीय समाजवाद व्याप्त है. महिलाओं को गरियाने से लेकर अभद्र और आपत्तिजनक टिप्प्णियां करने के मामले में टॉप टू बॉटम लोग पार्टी पोलिटिक्स और वर्ग तथा वर्ण से ऊपर उठ जाते हैं. भले ही संविधान के अनुच्छेद १५ में साफ कहा गया है कि राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा लेकिन लोग घर-बाहर अक्सर स्त्रियों को गरियाते मिल जाएंगे. एक तरफ तो देश में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ नारा चलता है, दूसरी तरफ बहन-बेटी से संबंधित गालियों का इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है. अपनी राय व्यक्त करने पर कविता कृष्णन, अरुंधती राय, सागरिका घोष, बरखा दत्त, राणा अयूब जैसी विदुषियों को गैंगरेप की खुलेआम धमकी दी जाती है! केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी, कांग्रेस प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी, भाजपा नेत्री अंगूरलता डेका को भी नहीं बख़्शा जाता! विराट कोहली के असफल होने पर अनुष्का शर्मा की फोटो लगाकर अश्लील व घटिया चुटकुले शेयर किए जाते हैं. यानी यौन-कुंठितों के हमले का प्रमुख लक्ष्य स्त्रियां ही हैं, चाहे वे कितनी भी कामयाब क्यों न हो जाएं!

 

इतिहासकार सूजैन ब्राउनमिलर का कहना है कि प्रागैतिहासिक काल में ही जब मर्दों को पता चल गया कि वे बलात्कार कर सकते हैं तो वे इसके साथ आगे बढ़े. बहुत-बहुत बाद में ख़ास हालात के चलते जब वे बलात्कार को अपराध मानने के लिए तैयार हुए तो कृत्य की कमी के चलते कुंठा में गालियों और अपमानसूचक शब्दों की शुरुआत हुई. गाली देकर हम किसी का अपमान करते हैं, गुस्सा/खीझ उतारते हैं या मज़ाक उड़ाते हैं. आमतौर से ये सारे गुण, जैसे सम्मान, गुस्सा या मज़ाक मर्दों के ‘अधिकार’ माने जाते हैं. ऐसे में गाली अक्सर मर्दों की चीज़ बन जाती है. इसीलिए ज्यादातर गालियां मर्दों के मान-अपमान एवं नफ़ा-नुकसान को ध्यान में रख कर बनी हैं; भले ही ऐसा करने में औरतों के शरीर या जानवरों की उपमा का घृणित इस्तेमाल होता हो. किसी समाज में प्रचलित गालियां यह बताती हैं कि किसी का बुरे से बुरा अपमान किस भांति हो सकता है तथा वहां सामाजिक नीचता की सीमा क्या है. इस प्रक्रिया में छुपी हुई लैंगिक हिंसा यह दिखाती है कि हम किसी को कितना जलील कर सकते हैं और औरत के शरीर को किस हद तक गालियों के केंद्र में रख सकते हैं.

 

यह जानना दिलचस्प है कि अलग-अलग संस्कृतियों में बुरी गालियों का मापदंड अलग-अलग है. किन्हीं समाजों में सगे-सम्बन्धियों के साथ यौन-संपर्क को सबसे बुरी गाली (मां, बहन से जुड़ी गालियां) माना जाता है (तुर्की, ईरान से लेकर मध्य एशिया और भारत तक), तो किन्हीं समाजों में शरीर के ख़ास अंगों/उत्पादों से तुलना (अंगविशेष या मल आदि के नाम पर दी जाने वाली गालियां) को बहुत बुरा माना जाता है (समूचे यूरोप में). कुछ समाजों में जानवरों या कीड़े-मकोड़ों से तुलना सबसे बुरी मानी जाती है (चीन, मेडागास्कर, थाइलैंड आदि देशों में), तो कुछ समाजों में नस्ल और जाति से जुड़ी गालियां सुनने वाले के शरीर में आग लगा देती हैं (यूएसए में). हां, लिंग से जुड़ी गालियां अमूमन हर समाज में पाई जाती हैं. एक आदर्श समाज में किसी भी प्रकार की गाली के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए लेकिन लोग एक-दूसरे को जलील करने के तरीके खोज ही लेते हैं. ऐसे में क्यों न मां-बहन की गालियां निकाल कर सामने वाले को गहरी चोट पहुंचाने और अपमानित करने की जगह कुछ आधुनिक गालियां ईजाद की जाएं? जैसे कि तेरे भ्रष्टाचार का प्लास्टिक डालूं! तेरी सांप्रदायिकता का धर्मनिरपेक्षता करूं, इसके इलेक्शन का कलेक्शन मारूं, इसके ई-कचरे का बैंड बजाऊं…आदि!

Tuesday 19 July 2016

थोड़ा दौड़ने पर ही फूल जाती हैं सांसें

एकदम से तेज भागना शुरू करना या फिर दौड़ने से पहले खुद को वार्मअप न करना इन दो के अलावा सांस फूलने का सबसे आम कारण है दौड़ते समय सही सांस न लेना। नए धावकों के अलावा कई अनुभवी धावक भी दौड़ते समय सही सांस लेने के महत्व को नहीं समझते।

यदि आप एक लंबी छलांग (स्ट्राइड) लगाने में एक से अधिक सांस लेते हैं तो मैराथन में दौड़ने की तो छोड़िए, आप एक किलोमीटर भी नहीं दौड़ नहीं पाएंगे। एक बार इसको अपना कर देखें।

यदि आप जल्दी-जल्दी कम गहरी सांसें लेते हैं तो इसका मतलब है कि आप न सही से ऑक्सीजन ले रहे हैं और न कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ रहे हैं। इस तरह आप केवल फेफड़ों के ऊपरी हिस्से का इस्तेमाल कर रहे हैं। फेफड़े के इस ऊपरी हिस्से में ऑक्सीजन और कार्बन डाई ऑक्साइड के आदान-प्रदान के लिए कम मात्र होती है। पर जब आप नियंत्रित और गहरी सांसें लेते है, ऐसे में सांस लेने और छोड़ने की प्रक्रिया सहज होती है।

15वीं शताब्दी में स्वामी स्वत्मार्म ने हठ योग पर हठ योग प्रदीपिका नाम एक अच्छी किताब लिखी है। उन्होंने कहा है, जब हम छोटी सांसें लेते हैं तो हमारा दिमाग भी अस्थिर होता है। पर जब हम गहरी सांसें लेते हैं तो हमारा मस्तिष्क भी शांत होता है और व्यक्ति को लंबी आयु मिलती है। इसलिए किसी व्यक्ति को सबसे पहला प्रयास सांसों को नियंत्रित करने का करना चाहिए। यह बात धावकों पर भी लागू होती है।

आपको गहरी लंबी सांसें लेनी चाहिए, पर साथ ही यह भी समझों कि जितना बेहतर तरीके से सांस लेते हैं, उतना बेहतर सांसें छोड़ना भी आना चाहिए। यदि आप सांसें छोड़ते समय फेफड़े खाली नहीं करेंगे तो उसमें हवा अंदर लेने के लिए जगह कैसे बनाएंगे? सांसें किस निश्चित आधार पर ली जाएं, इस संदर्भ में मैं कोई सलाह नहीं देता, बशर्ते आप एक छलांग में एक से अधिक सांस न लेते हों। सहज होकर सांस लें।

गति के साथ जिस दूसरी चीज पर ध्यान लगाने की जरूरत होती हैं वह है आपकी सांसें। गहरी लंबी सांसें लें और गहरे लंबे श्वास छोड़ें। इससे आपकी मांसपेशियों को आराम मिलेगा। सामान्य गति में दौड़ते हुए आप बात कर सकेंगे। जैसे-जैसे गति तेज होती है, अपकी सांस लेने की प्रक्रिया भी प्रभावी ढंग से तेज हो जाएगी। गहरे सांस लेने के अभ्यास से आप न सिर्फ  सांस उखड़े बिना लंबा दौड़ पाएंगे, बल्कि तेज और प्रभावी ढंग से दौड़ सकेंगे।

कुछ जरूरी सलाह व निर्देशों को अपना कर आप खुद को प्रभावी धावक बना सकते हैं। दौड़ लगाने से पहले के पांच मिनट चलते हुए आप केवल अपनी सांसों पर ध्यान लगाएं। मेरी सलाह होगी कि आप गहरी लंबी सांस लें, उसे एक या दो सेकेंड के लिए रोक कर रखें और फिर सांस बाहर छोड़ें। यह अभ्यास करने से आप समझ जाएंगे कि कहां सही महसूस कर रहे हैं।

सांसों को नियंत्रित करने का अभ्यास करने के लिए यदि किसी एक व्यायाम को चुनना हो तो मैं प्राणायाम कहूंगा। कपालभाती प्राणायाम आपके लिए अच्छा आसन रहेगा। इससे आप एक सामान्य-सी बात सीखते हैं कि आप सांस के जरिए उतनी ही हवा अंदर ले जा सकेंगे, जितना आपके फेफड़ों में हवा के लिए स्थान होगा। ऐसे में अधिकतम हवा अंदर ले जाने के लिए आपको सांस द्वारा हवा अच्छी तरह बाहर निकालनी होगी। सांस लेने की सही प्रक्रिया आपकी मांसपेशियों को आराम पहुंचाती है। पॉस्चर को सही रखते हुए दौड़ना भी सही सांस लेने की प्रक्रिया को बढ़ावा देता है।

लंबी दौड़ में यदि आपने अपने शरीर को अकड़ा रखा है तो आपको जल्दी ही अपने पीठ के ऊपरी और निचले हिस्से के अलावा कंधों में दर्द होना शुरू हो जाएगा। थकावट और दर्द अनुभव होगा। इन्हीं हिस्सों में अधिक तनाव होने से आप कम गहरी और तेज-तेज सांसें लेते हैं और तेज दौड़ नहीं पाते।

सेना भर्ती रैली : तैयारी में 8 किमी नहीं, 1600 मीटर ही दौड़ें

सीकर. शेखावाटी के युवाओं का फिजिकल अच्छा है और हमें यहां भर्ती करवाने में मजा आता है। सेना में ऐसे ही लंबी चौड़ी कद काठी  के युवाओं की जरूरत होती है, लेकिन यहां के युवा 1600 मीटर दौड़ की ही तैयारी करके ही आए। यह कहना है सीकर में सेना भर्ती रैली के भर्ती निदेशक कर्नल सुवीर सेठ का। उन्होंने भर्ती में कामयाबी के तरीकों को लेकर भास्कर से खास बातचीत की। उनका कहना है कि यहां के युवक रोज पांच से आठ किलोमीटर दौड़ की प्रेक्टिस करके आते हैं लेकिन यहां दौड़ में विफल हो जाते हैं।

और पढ़ें

सीकर. शेखावाटी के युवाओं का फिजिकल अच्छा है और हमें यहां भर्ती करवाने में मजा आता है। सेना में ऐसे ही लंबी चौड़ी कद काठी  के युवाओं की जरूरत होती है, लेकिन यहां के युवा 1600 मीटर दौड़ की ही तैयारी करके ही आए। यह कहना है सीकर में सेना भर्ती रैली के भर्ती निदेशक कर्नल सुवीर सेठ का। उन्होंने भर्ती में कामयाबी के तरीकों को लेकर भास्कर से खास बातचीत की। उनका कहना है कि यहां के युवक रोज पांच से आठ किलोमीटर दौड़ की प्रेक्टिस करके आते हैं लेकिन यहां दौड़ में विफल हो जाते हैं।

पिछली बार भी ऐसे कई युवक देखने को मिले थे। ऐसे में उन्हें केवल 1600 मीटर की तैयारी ही करनी है जिससे यह मालूम रहे कि कैसे दौड़ की बाधा पार करनी है? सीकर के युवाओं में सेना में जाने का जबरदस्त जोश और जुनून है। दौड़ से पहले उन्हें तकनीकी पहलुओं से रूबरू कराने के लिए भास्कर ने कर्नल सुवीर सेठ से बातचीत की।

भर्ती में दौड़ सबसे पहली बाधा है, इसे कैसे पूरा किया जाए?

यहां के बच्चे अच्छी तैयारी के साथ आते हैं। वे रोज 8 से 10 किलोमीटर दौड़ की तैयारी करते हैं। यह तरीका गलत है उन्हें 1600 मीटर की ही तैयारी करनी चाहिए। जो रोज 8 किलोमीटर भाग रहा है वह दो किलोमीटर से पहले तो जोर ही नहीं लगाएगा और तब तक तो दौड़ पूरी हो जाएगी। 1600 मीटर की तैयारी करेंगे तो यह पता रहेगा कि कौनसे चक्कर में पूरा दम लगाना है? शुरूआत के दो चक्कर आराम से पूरे करें। इनमें ज्यादा जोर लगाएंगे तो आखिर में बाहर हो जाएंगे। आखिरी चक्कर में पूरा दमखम लगाएं। कभी भी पूरे पैर पर नहीं भागे। पंजों के बल भागने से अपने आप ऊर्जा मिलती है और सफल होते हैं।

फिजिकल की तैयारी कैसे करें?
फिजिकल में केवल बीम में ही बच्चे बाहर होते हैं। बीम केवल प्रेक्टिस से ही पूरी की जा सकती हैं। प्रेक्टिस के दौरान यह ध्यान रखें कि बीम बिल्कुल सीधे हाथ से निकालें और ठुडी को पाइप से टच करें। कई बच्चे बीच में कोहनी मोड़कर प्रेक्टिस करते हैं जो बाहर हो जाते हैं। बीम के अलावा कोई भी फिजिकल ज्यादा मुश्किल नहीं है।

सीने की वजह से काफी युवा बाहर होते हैं, इन्हें क्या करना चाहिए?
यह समस्या ज्यादा बच्चों के साथ है। जिनका सीना कम है वे रोज दौड़ पूरी करने के बाद पुशअप जरूर निकालें। पुशअप ही सीना बढ़ाने का एकमात्र तरीका है। पुशअप के बाद हेवी खाना लें और रेस्ट करें। सीना बढ़ जाएगा।

सीकर के युवा सबसे ज्यादा किस टेस्ट में बाहर होते हैं?
मेडिकल में काफी बच्चे बाहर होते हैं। हड्डियों में टेढ़ेपन की समस्या है। इसके अलावा फ्लोराइड भी यहां की एक बड़ी समस्या है। जिससे दांत व हड्डियां कमजोर हो जाती हैं और वे सेना में जाने के लायक नहीं रहते हैं। 

यहां के युवाओं के फिजिकल के बारे में क्या कहना चाहेंगे?
शेखावाटी के बच्चों का फिजिकल अच्छा है। हमें तो ऐसे ही युवा चाहिए जो लंबी चौड़ी कद काठी के हों। इसीलिए यहां भर्ती करवाने में मजा आता है। बच्चें तैयारी भी अच्छी करते हैं और अनुशासन में रहते हैं। यही वजह है कि शेखावाटी में भर्ती कराने के बाद यादगार पल हमारे साथ होते हैं। 

पुलिस-पैरा मिलिट्री फोर्स : कैसे करें तैयारी

देश के प्रत्येक राज्य में अलग-अलग पुलिस सेवा का प्रावधान है। इस तरह से देखा जाए तो समस्त राज्यों की पुलिस सेवा में कई लाख पुलिसकर्मी कार्य कर रहे हैं। अगर पैरा मिलिट्री फोर्सेस को लें तो देश में कई ऐसे संगठनों का नाम लिया जा सकता है। इनमें प्रमुख रूप से सेंट्रल रिजर्व पुलिस फोर्स (लगभग 2 लाख कर्मी), रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स (लगभग 45 हजार कर्मी), सशस्त्र सीमा बल (लगभग 35 हजार कर्मी), पीएसी (लगभग 3 लाख), सीमा सुरक्षा बल (2.25 लाख), सेंट्रल इंडस्ट्रियल सिक्योरिटी फोर्स (लगभग 1 लाख) आदि का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है। 

इसमें कोई शक नहीं कि इन संगठनों में न सिर्फ भारी संख्या में प्रति वर्ष नियुक्तियां होती रहती हैं बल्कि करियर और सुविधाओं की दृष्टि से भी इन्हें कम करके नहीं आंका जा सकता है। जहां एक ओर प्रादेशिक पुलिस का काम संबंधित राज्य में कानून और व्यवस्था को बनाए रखना है वहीं पैरा मिलिट्री फोर्सेस का काम देश के महत्वपूर्ण संस्थानों की सुरक्षा करना और आपात काल में स्थिति को संभालना होता है। 

आइए बात करते हैं इन संगठनों में रोजगार के विभिन्न अवसरों और भर्ती के प्रक्रिया के बारे में।

पुलिस सेवा 
राज्यों की पुलिस सेवा में महिलाओं और पुरुषों के लिए अवसर होते हैं। सब इंस्पेक्टर से ऊपर के पदों के लिए स्टेट पब्लिक सर्विस कमीशन द्वारा आयोजित परीक्षा के आधार पर चयन किया जाता है। सब इंस्पेक्टर और असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर के पदों पर आवेदन सीधे ही मंगाए जाते हैं। इनके लिए कम से कम ग्रेजुएशन की डिग्री अवश्य होनी चाहिए। अंतिम चयन प्रतियोगी परीक्षा और फिजिकल टेस्ट के आधार पर होता है। इससे नीचे के पदों के लिए फिजिकल टेस्ट पर ज्यादा जोर दिया जाता है। इसमें टेक्नीकल और ड्राईवर आदि पदों की रिक्तियों की बात की जा सकती है। हालांकि ऑफिस स्टाफ के लिए क्लर्क पदों पर भी अलग से भर्तियां की जाती हैं।

पैरा मिलिट्री फोर्स 
प्रायः इन फोर्सेस में असिस्टेंट कमांडेंट के तौर पर अधिकारी वर्ग के पदों पर नियुक्तियां काफी कठोर चयन प्रक्रिया के आधार पर की जाती है। बीस वर्ष के कार्यकाल में ये डिप्टी कमांडेंट, कमांडेंट के पदों से होते हुए डीआईजी और आईजी सरीखे शीर्ष पदों तक पहुंच सकते हैं। कम से कम ग्रेजुएशन की डिग्रीधारक ही असिस्टेंट कमांडेंट के पद के लिए आवेदन कर सकता है। इस क्रम में एन सी सी का सर्टिफिकेट भी काफी फायदेमंद कहा जा सकता है।

लिखित परीक्षा में दो पेपर होते हैं। पहले पेपर में जनरल अवेयरनेस, रीजनिंग, न्यूमेरिकल एबिलिटी और बेसिक इंटेलिजेंस पर आधारित प्रश्न होते हैं जबकि दूसरे पेपर में भाषा ज्ञान और लिखित रूप से व्यक्त कर पाने की क्षमता की परख की जाती है। हालांकि पुलिस फोर्स और सभी पैरा मिलिट्री फोर्सेस के चयन और लिखित परीक्षा के तौर तरीकों में थोड़ा बहुत अंतर अवश्य होता है।

लिखित परीक्षा में सफल उम्मीदवारों को फिजिकल टेस्ट भी देना पड़ता है। इसमें रेस, हाई जंप, लॉन्ग जंप, शॉर्टपुट इत्यादि पर आधारित शारीरिक परीक्षा को शामिल किया जाता है। इसके बाद इंटरव्यू की कसौटी से भी गुजरना पड़ता है तभी अंतिम रूप से चयन की प्रक्रिया संपन्न होती है।

इस क्रम में यह भी बता दें कि दसवीं और बारहवीं पास युवा इन संगठनों में जवान के पदों के लिए आवेदन कर सकते हैं और इनकी चयन प्रक्रिया में हिस्सा ले सकते हैं। अमूमन 18 से 26 वर्ष की आयु सीमा आवेदन के लिए निर्धारित की गई है। 

कैसे करें तैयारी 
1. अक्सर लिखित परीक्षा में सफल होने के बावजूद युवा फिजिकल टेस्ट की कसौटी पर असफल हो जाते हैं। इसलिए इस टेस्ट की पूरे जोर शोर से तैयारी करनी चाहिए अन्यथा सारी मेहनत बेकार हो सकती है।

2. लिखित परीक्षा में सफल होने के लिए कम से कम एक साल पहले से नियमित तैयारी शुरू कर देनी चाहिए। मॉडल टेस्ट पेपर्स का अभ्यास काफी कारगर सिद्ध होता है। 

3. इंटरव्यू को 'टेक इट इजी' तरीके से कतई नहीं लेना चाहिए। इसके पैटर्न और संभावित प्रश्नों के उत्तर तैयार कर लेने चाहिए।

4. पुलिस सेवा और पैरा मिलिट्री सर्विस, दोनों की ही चयन परीक्षाओं में शामिल होना चाहिए। किसी को भी कम नहीं समझा जाना चाहिए।