Monday 22 August 2016

Mata Rani Bhatiyani, Jasol

Jasol is near Balotra in Barmer District which is around 108km from Jodhpur. Mata Rani Bhatiyani temple is located at Jasol village in Pachpadra Tehsil near Balotra town in Barmer district Rajasthan. It is famous for the miracles that the goddess Mata Rani Bhatiyani showers upon her followers.  Mata Rani bhatiyani’s real name is Swarup Kanwar and she was the daughter of Jogidas Bhati, a Bhati rajput from Jaisalmer district. she was married to Kalyan Singh, a Mahecha rathore chief from Jasol village. Due to the treachery of Kalyan Singh,s second wife, Swarup Kanwar's son Lal Singh (laal banna) died at a young age. this angered Rani Swarup Kanwar and she cursed the second wife of Kalyan Singh.

Rani Swarup Kanwar left this world for the heavenly abode due the shock of her son's untimely death…. After her death Mata Rani showed first miracle when a Dholi (singer) from her father's village,unknown of Mata Rani's demise, came to jasol to meet her.  and Mata Rani gave her darshan to that Dholi.  Ever since mata rani bhatiyani has blessed millions of her devotees and helped them in the difficult times…. her temple at jasol is full of devotees at all the times. and specially on the 13th and 14 th day of Hindu lunar calendar… Mata Rani is always with those who Remember her and worship her. . Another huge mata rani bhatiyaani temple is located in jakhan village in osian tehsil, district jodhpur rajasthan, where devotees come in big numbers on 13 t day of Hindu months bhadrapad and maagh. Mata Rani is worshipped in most parts of western Rajasthan and also in Madhya Pradesh, Maharashtra, Gujarat .

राणा उदयसिंह

Maharana Udai Singh History in Hindi, History of Maharana Udaisingh

उदय और विक्रमादित्य थे, सबका यश जागेगा रे । 
संघ ने शंख बजाया भैया सत्य जयी अब होगा रे ।

राणा उदयसिंह मेवाड़ के राणा साँगा के पुत्र थे। उदयसिंह का जन्म वि.सं. 1579 भाद्रपद शुक्ला 12 (ई.स. 1522) में हुआ था। उदयसिंह के बड़े भाई राणा विक्रमादित्य को मारकर साँगा के बड़े भाई पृथ्वीराज (उडना राजकुमार) की पासवान (अविवाहित पत्नी) का पुत्र बणवीर मेवाड़ का राणा बना। बणवीर उदयसिंह को भी मारना चाहता था। वह जानता था कि उदयसिंह के जीवित रहते वह चैन से मेवाड़ की गद्दी पर नहीं रह सकेगा। वह नंगी तलवार लेकर उदयसिंह को मारने के लिए चला, लेकिन पन्नाधाय ने उसे पहले ही महल के बाहर छुपाकर भेज दिया। पन्ना ने विश्वसनीय आदमियों के साथ उदयसिंह को महलों से निकाल लिया | उदयसिंह की आयु उस समय चौहद वर्ष की थी।


उदयसिंह को पन्ना सुरक्षित जगह पर ले गई, लेकिन बणवीर के डर से किसी भी सरदार ने उसे संरक्षण नहीं दिया। अन्त में वह उसे कुम्भलगढ़ लेकर गई। कुम्भलगढ़ में उदयसिंह गुप्त रूप से रहने लगे। थोड़े दिनों बाद यह बात फैल गई कि उदयसिंह जीवित है। रावत खान (कोठारिया) ने कुम्भलगढ़ पहुँचकर रावत साँईदास चूण्डावत (सलूम्बर), केलवा से जग्गा, बागौर से रावत साँगा आदि सरदारों को बुलाया। इन सरदारों ने उदयसिंह को मेवाड़ का स्वामी मानकर राजतिलक किया। यह घटना वि.सं. 1594 (ई.स. 1536) की है। अखैराज सोनगरा की पुत्री के साथ उदयसिंह का विवाह कर दिया गया । उदयसिंह को चित्तौड़ की गद्दी पर बैठाने का विचार होने लगा। मारवाड़ के राव मालदेव से सहायता की प्रार्थना की गई। मारवाड़ में अखैराज सोनगरा प्रमुख सरदार था, इसलिए राव मालदेव ने सैनिक सहायता भेजी। अखैराज सोनगरा और कुँपा महराजोत के नेतृत्व में राठौड़ों की सेना उदयसिंह की सहायता के लिए आई। इस प्रकार सेना एकत्र होने पर उदयसिंह कुम्भलगढ़ से चित्तौड़ की तरफ चले। बणवीर ने भी उदयसिंह की इस चढ़ाई के समाचार सुनकर अपनी सेना को कुंवरसी तंवर के साथ भेजी। दोनों सेनाओं में माहोली (मावली) के पास युद्ध हुआ। युद्ध में बणवीर की पराजय हुई और कुंवरसी तंवर बहुत से सैनिकों के साथ रणखेत रहा। फिर यह सेना चित्तौड़ की तरफ बढ़ी। इस बार बणवीर के नेतृत्व में युद्ध हुआ। बणवीर की पराजय हुई और वह परिवार सहित जान बचाकर दक्षिण में चला गया। इस प्रकार वि.सं. 1597 (ई.स. 1540) में उदयसिंह का चित्तौड़ में राज्याभिषेक हुआ।

अकबर ने मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए कूच किया। जब अकबर की चित्तौड़ पर चढ़ाई का समाचार शक्तिसिंह द्वारा मिला तो मेवाड़ के सरदारों ने युद्ध से निबटने के लिए एक परिषद बुलाई। इस परिषद में जयमल मेड़तिया, रावत साँईदास चूण्डावत, ईसरदास चौहाण, राव बल्ल सोलंकी, डोडिया साँडा, रावत साहिब खान, रावत पत्ता चूण्डावत, रावत नैतसी आदि सरदार उपस्थित हुए। उन्होंने राणा उदयसिंह को सलाह दी कि गुजरात के सुल्तान से लड़ते-लड़ते मेवाड़ कमजोर हो गया है और अकबर के पास बहुत बड़ी सेना है इसलिए आपको परिवार सहित पहाड़ों की तरफ चला जाना चाहिए। अब यही उचित है कि हम लोग किले में रहकर अकबर से लड़े और आप रणवास समेत पहाड़ों में चले जाएँ। इस सलाह पर उदयसिंह जयमल मेड़तिया और पत्ता चूण्डावत को सेनाध्यक्ष नियुक्त कर कुछ सरदारों के साथ मेवाड़ के पहाड़ों में चले गये। किले में आठ हजार राजपूत रहे।

अकबर ने किले पर घेरा डालकर आक्रमण किया। घेरा कई महिनों तक चला लेकिन दुर्ग पर मुसलमानों का अधिकार न हो सका। एक दिन आधी रात के समय जयमल मशाल लेकर दुर्ग की मरम्मत करवा रहे थे। अकबर ने अपनी ‘संग्राम’ नामक बन्दूक से निशाना लगाकर गोली चला दी। दुर्भाग्य से गोली जयमल जी के जाँघ पर लगी, वह घायल हो गये। रात में ही जौहर रचाया गया और सुबह दुर्ग के दरवाजे खोल दिए गए। भयंकर आक्रमण हुआ। राजपूत जब तक जिन्दा रहे तब तक किले में मुसलमानों का प्रवेश नहीं हो सका। एक-एक करके राजपूत वीर रणखेत होते रहे। इस तरह से यह अन्तिम निर्णायक युद्ध. दो दिन और एक रात लगातार बिना रुके हुआ। अन्त में वि.सं. 1624 चैत्र बदि 13 (ई.स. 1568 फरवरी 25) को दोपहर के समय अकबर का दुर्ग पर अधिकार हो सका। यह युद्ध चित्तौड़ का तीसरा शाका' था। इस युद्ध में लगभग आठ हजार राजपूत काम आए और लगभग तीस हजार रय्यत (प्रजा) कत्लेआम में मारी गई।
चित्तौड़ छूटने के बाद राणा उदयसिंह ज्यादातर कुम्भलगढ़ में रहे। वि.सं. 1528 में वह कुम्भलगढ से गोगुन्दा में आये, बाद में बीमार होने के कारण वि.सं. 1528 (ई.स. 1572 फरवरी) में उनका देहान्त हुआ।

कई इतिहासकारों ने उदयसिंह पर कायरता का आरोप लगाया हैं। उदयसिंह का युद्ध से पहले दुर्ग छोड़कर पहाड़ों में जाना कायरता पूर्ण कृत्य मानते हैं। कई इतिहासकारों ने उसे शानदार वंश की नाजोगी की सन्तान कहा है लेकिन तत्कालीन परिस्थितियों पर विचार करते हैं तो ये आरोप निराधार हैं। उदयसिंह ने युद्ध परिषद के निर्णय को शिरोधार्य किया था। इस युद्ध से पहले भी चित्तौड़ में दो शाके हो चुके थे, जिनके कारण चित्तौड़ का काफी विनाश हो चुका था। भौगोलिक परिस्थिति के कारण चित्तौड़ अजेय नहीं था। उदयसिंह बड़े बुद्धिमान शासक थे, जिन्होंने अकबर के युद्ध से लगभग आठ वर्ष पहले उदयपुर नगर की स्थापना कर ली थी, जो पहाड़ों में सुरक्षित जगह थी, जिसे मेवाड़ की राजधानी बनाया जा सकता था। चित्तौड़ दुर्ग खाली करने से पहले उन्होंने धन-सम्पति व जरूरी कागजात सुरक्षित जगह पर पहुँचा दिए थे।

उदयसिंह कायर राजा नहीं थे, क्योंकि इस युद्ध से पहले भी उन्होंने कई युद्ध लड़े थे। वह मेवाड़ का राणा बने तब भी उन्होंने युद्ध किया था। राव मालदेव ने कुम्भलगढ़ पर आक्रमण किया तब उदयसिंह ने कुम्भलगढ़ पर मालदेव का अधिकार नहीं होने दिया। मालदेव से हरमाड़ा में भी युद्ध किया था। राव मालदेव कमजोर शासक नहीं थे। वह अपने समय के शक्तिशाली राजा थे। विक्रमादित्य के समय जो क्षेत्र दूसरों के अधिकार में चला गया था, उसे भी उदयसिंह ने छीना था। सामरिक दृष्टि से सुरक्षित स्थान गोगून्दा को उदयसिंह ने अपनी नई राजधानी बनाई।

नैणसी ने उदयसिंह को ‘महाप्रतापशाली राजा’ तथा ‘उग्र तेज वाला' कहा है। वह राणा प्रताप का पिता होने के कारण ही प्रसिद्ध नहीं थे, वरन स्वतन्त्र रूप से उन्होंने गौरव अर्जित किया था। अपने प्रयत्न और यश से अपने प्रतापी पुत्र राणा प्रताप का मार्ग प्रशस्त किया था। केवल चित्तौड़ में बैठकर लड़ने से उन्होंने यह अच्छा समझा कि बाहर रहकर मेवाड़ के दूसरे गढ़ों को सुदृढ़ किया जाए। जब एक बड़ी सेना से दुर्ग घिर जाता है तो लड़कर मारे जाने या अधीनता स्वीकार करने के सिवा दूसरा कोई चारा ही नहीं रह जाता है।

उदयसिंह ने युद्ध की एक नई नीति अपनाई जिसे छापामार नीति कहते हैं। इस नीति का अनुसरण राणा प्रताप और राणा अमरसिंह ने किया था। उदयसिंह ने जो सम्पति सुरक्षित रखी थी उसके बल पर राणा प्रताप और अमरसिंह ने मुगलों से मुकाबला किया था। राणा प्रताप और अमरसिंह को सैनिक खर्चे के लिए कोई कमी नहीं थी। अमरसिंह ने जब शहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) से सन्धि की थी, उस समय अमरसिंह ने एक कण्ठा भेंट किया था, उस समय उस लाल के कण्ठे की कीमत साठ हजार रूपए थी। चित्तौड़ से दूर पहाड़ों में सुरक्षित प्रदेश में उदयपुर नगर बसा कर उसने दूरदर्शिता का परिचय दिया। आने वाले समय में उदयपुर मेवाड़ की राजधानी बना।

जहाँ मन्नत मांगी जाती है मोटरसाईकिल से ! - ओम बन्ना

विविधताओं से भरे हमारे देश में देवताओं, इंसानों, पशुओं, पक्षियों व पेड़ों की पूजा अर्चना तो आम बात है लेकिन हम यहाँ एक ऐसे स्थान की चर्चा करने जा रहा है जहाँ इन्सान की मौत के बाद उसकी पूजा के साथ ही साथ उसकी बुलेट मोटर साईकिल की भी पूजा होती है और बाकायदा लोग उस मोटर साईकिल से भी मन्नत मांगते है|

जी हाँ ! इस चमत्कारी मोटर साईकिल ने आज से लगभग २१ साल पहले सिर्फ स्थानीय लोगों को ही नहीं बल्कि सम्बंधित पुलिस थाने के पुलिस वालों को भी चमत्कार दिखा आश्चर्यचकित कर दिया था और यही कारण है कि आज भी इस थाने में नई नियुक्ति पर आने वाला हर पुलिस कर्मी ड्यूटी ज्वाइन करने से पहले यहाँ मत्था टेकने जरुर आता है |

जोधपुर अहमदाबाद राष्ट्रिय राजमार्ग पर जोधपुर से पाली जाते वक्त पाली से लगभग 20 km पहले रोहिट थाने का " दुर्घटना संभावित" क्षेत्र का बोर्ड लगा दिखता है और उससे कुछ दूर जाते ही सड़क के किनारे जंगल में लगभग 30 से 40 प्रसाद व पूजा अर्चना के सामान से सजी दुकाने दिखाई देती है और साथ ही नजर आता है भीड़ से घिरा एक चबूतरा जिस पर एक बड़ी सी फोटो लगी,और हर वक्त जलती ज्योत | और चबूतरे के पास ही नजर आती है एक फूल मालाओं से लदी बुलेट मोटर साईकिल | यह वही स्थान है और वही मोटर साईकिल जिसका में परिचय करने जा रहा हूँ |
यह "ओम बना" Om Bana का स्थान है ओम बना (ओम सिंह राठौड़) पाली शहर के पास ही स्थित चोटिला Chotila गांव के ठाकुर जोग सिंह जी राठौड़ के पुत्र थे जिनका इसी स्थान पर अपनी इसी बुलेट मोटर साईकिल पर जाते हुए १९८८ में एक दुर्घटना में निधन हो गया था | स्थानीय लोगों के अनुसार इस स्थान पर हर रोज कोई न कोई वाहन दुर्घटना का शिकार हो जाया करता था जिस पेड के पास ओम सिंह राठौड़ Om Singh Rathore की दुर्घटना घटी उसी जगह पता नहीं कैसे कई वाहन दुर्घटना का शिकार हो जाते यह रहस्य ही बना रहता था | कई लोग यहाँ दुर्घटना के शिकार बन अपनी जान गँवा चुके थे | 

ओम सिंह राठोड की दुर्घटना में मृत्यु के बाद पुलिस ने अपनी कार्यवाही के तहत उनकी इस मोटर साईकिल को थाने लाकर बंद कर दिया लेकिन दुसरे दिन सुबह ही थाने से मोटर साईकिल गायब देखकर पुलिस कर्मी हैरान थे आखिर तलाश करने पर मोटर साईकिल वही दुर्घटना स्थल पर ही पाई गई, पुलिस कर्मी दुबारा मोटर साईकिल थाने लाये लेकिन हर बार सुबह मोटर साईकिल थाने से रात के समय गायब हो दुर्घटना स्थल पर ही अपने आप पहुँच जाती | आखिर पुलिस कर्मियों व ओम सिंह के पिता ने ओम सिंह की मृत आत्मा की यही इच्छा समझ उस मोटर साईकिल को उसी पेड के पास छाया बना कर रख दिया | इस चमत्कार के बाद रात्रि में वाहन चालको को ओम सिंह अक्सर वाहनों को दुर्घटना से बचाने के उपाय करते व चालकों को रात्रि में दुर्घटना से सावधान करते दिखाई देने लगे | वे उस दुर्घटना संभावित जगह तक पहुँचने वाले वाहन को जबरदस्ती रोक देते या धीरे कर देते ताकि उनकी तरह कोई और वाहन चालक असामयिक मौत का शिकार न बने | और उसके बाद आज तक वहाँ दुबारा कोई दूसरी दुर्घटना नहीं हुयी| 

ओम सिंह राठौड़ के मरने के बाद भी उनकी आत्मा द्वारा इस तरह का नेक काम करते देखे जाने पर वाहन चालको व स्थानीय लोगों में उनके प्रति श्रधा बढ़ती गयी और इसी श्रधा का नतीजा है कि ओम बना के इस स्थान पर हर वक्त उनकी पूजा अर्चना करने वालों की भीड़ लगी रहती है उस राजमार्ग से गुजरने वाला हर वाहन यहाँ रुक कर ओम बना को नमन कर ही आगे बढ़ता है और दूर दूर से लोग उनके स्थान पर आकर उनमे अपनी श्रद्धा प्रकट कर उनसे व उनकी मोटर साईकिल से मन्नत मांगते है | मुझे भी कोई दो साल पहले अहमदबाद से जोधपुर सड़क मार्ग से आते वक्त व कुछ समय बाद एक राष्ट्रिय चैनल पर इस स्थान के बारे प्रसारित एक प्रोग्राम के माध्यम से ये सारी जानकारी मिली और इस बार की जोधपुर यात्रा के दौरान यहाँ दुबारा जाने का मौका मिला तो सोचा क्यों न आपको भी इस निराले स्थान के बारे में अवगत करा दिया जाये | 
यह लेख सिर्फ इस जगह की जानकारी देने के उद्देश्य से लिखा गया है इसे विश्वास या अन्धविश्वास मानना आपके स्वविवेक पर है |